हेल्लो दोस्तों, सभी को लोहड़ी और मकर संक्रांति की बहुत बधाइयाँ... वेसे तो पुरे देश में ये त्यौहार अलग अलग रूप में मनाया जाता है, ठीक उसी तरह से उत्तराखंड में ये त्यौहार घुघुतिया त्यौहार के रूप में मनाया जाता है...
उत्तराखंड में घुघुतिया त्यौहार दो दिन मनाया जाता है, दो दिन से मतलब एक दिन घुघुते (यानि की आटा या सूजी को गुड़ के पानी के साथ गूँथ के उस में सोंफ और भी कई चीज़ों को मिला कर, उसे घी या तेल में अलग अलग डिजाईन में बना के तलते हैं) बनाते हैं और अगले दिन यानि की मकर संक्रांति के दिन इसे सुबह सबसे पहले कोव्वे को देने के लिए छतों में रखने के बाद सब लोग खाते हैं...
उत्तराखंड में खास कर कुमाऊ में भी अलग अलग दिन पकाने और कोव्वे को खिलने का रिवाज है... पता नहीं क्यों पर आज मुझे एक दोस्त में बताया की इस के पीछे भी एक कहानी है...
कहते हैं की सरयू नदी के उस पार के लोग (पिथोरागढ़, बागेश्वर, अल्मोड़ा) के लोगो ने घुघुते बना के कोव्वे को रखे तो सारे कोव्वे उस पार चले गये खाने... और इस पार (नैनीताल, चम्पावत) वालो को कोई कव्वा ही नहीं मिला, कव्वे खा पी के जब अगले दिन वापस आये तो उन्हें फिर से घुघते दिखे छतों में... तो फिर क्या या कव्वों ने अगले दिन खाया... इसलिए यहाँ अगले दिन मनाते हैं...
(कब किस तरफ वाले मानते हैं पता नहीं... कुछ गलत लिखा हो तो बुरा मत मानना, बस घुघते खाना... J कमेंट में बता देना सही गलत)
हाहाहा... सच है या नहीं प्लीज मुझे भी बताना निचे कमेंट कर के... और साथ में कोई और कहानी हो तो वो भी बताना... बहुत अच्छा लगता है इन प्यारी बातों को सुन कर...
तो इस तरह से पौष महीने के आखिरी दिन घुघुते पका कर अगले दिन माघ महीने के पहले दिन कोव्वे को दे कर खाते हैं...
इसलिए एक गाना भी फेमस है यहाँ...
काले कव्वा काले...
पौष को रोटी माघ में खा ले...
बचपन में गावों में घर वाले घुघते बना कर उनको एक धागे में बांध कर माला जैसे बना देते थे... जिसे बच्चे अपने गले में टांग कर खेलने लग जाते थे... जब भूख लगी खा लिया और खेलते रहे... कोई जेब में रखने का झंझट नहीं... क्या दिन हुए वो भी...
तो आप भी बनाओ और खाओ घुघुते और हाँ पहले कोव्वे को भी खिला देना... क्यूंकि हर कोव्वे का दिन आता है... और इस का आ गया है... हाहाहा
- बाबा बेरोजगार
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