ऑफिस में उस लड़की को हमेशा अपनी सीट से सामने की खिड़की से बाहर देखते हुए ही पाया... खोयी हुई इस दुनिया की परेशानियों से...
वेसे तो हमारी सीट इस हिसाब से है कि एक दुसरे का चेहरा कम ही देख पाते हैं... बस बातें होती रहती हैं अपने अपने कंप्यूटर में काम करते करते... आज जब मैं बाहर सोफे पे बैठा हुआ था तो अचानक उस पर नजर पड़ी... वो एकटक सामने खिड़की से बाहर झाँक रही थी... वो कहती थी कि उसे -खिड़की के बाहर वो 3 – 4 पेड़ों को हवा में हलके हलके हिलते देख अच्छा लगता है...
पेड़ों को देख के किस को अच्छा नहीं लगता पर और चीजें भी तो हैं... पर वो कहती कि कितने आजादी से वो मज्जे से अपनी मन की कर रहे हैं... और एक हम हैं जो चंद रूपये की खातिर कंप्यूटर में आखें गडाए लगे हुए हैं...
उसे बाहर से इसे ही देख के लगा कि फिर से ये वही सब तो नहीं सोच रही... पर वो बिना कुछ सोचे बस बेजान सी बाहर देखे जा रही थी... शायद वो भूल गई थी कि वो कहा है... बस बाहर उस खिड़की से देख रही थी... उस के चेहरे पर कोई हाव भाव नहीं थे, न कोई ख़ुशी और न ही कोई गम... बस सब कुछ भूल के बाहर देखती रही... और मैं भी बस देखता रहा – “ऑफिस की खिड़की और वो लड़की”
- बाबा बेरोजगार
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